
दुनिया मेरे आगेः आधुनिकता की कठपुतली
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_अमित चमड़िया_ बिहार के रोहतास जिले के हथनी गांव के सत्तर वर्षीय सुदामा का परिवार कई पीढ़ियों से कठपुतली के करतब दिखाता आ रहा है। लेकिन सुदामा के बाद शायद ही इस गांव और इसके आसपास के शहरों के
बच्चे कठपुतली का करतब देख पाएं, क्योंकि सुदामा के बाद की पीढ़ी के लोगों ने इस काम को छोड़ दिया है। उन लोगों की यह काम करने या इसे आगे बढ़ाने में कोई दिलचस्पी नहीं है। सुदामा जिस कठपुतली का
उपयोग करतब दिखाने के लिए करते हैं, वह पचास साल से ज्यादा पुरानी है। शायद सुदामा के पिता ने यह बनाई थी। सुदामा केवल इतना बताते हैं कि यह कठपुतली मैंने नहीं बनाई है। जब कभी सुदामा आसपास के
शहरों के मुहल्लों में जाते हैं तो वहां के बच्चे इस करतब को बड़े चाव से देखते ही हैं, बड़े भी अपने बचपन को याद कर इसे अपने स्मार्ट फोन में कैद कर लेते हैं। सुदामा इस काम से रोजाना सौ से दो सौ
रुपए तक कमा लेते हैं। कठपुतली का खेल, बाइस्कोप पर फिल्म देखना, शादी में डोली का उपयोग किसी समय गांव की पहचान हुआ करते थे। खुद को शहरी और ‘आधुनिक’ समझने वाले लोग इन जैसी तमाम चीजों को अपने से
अलग रखते थे, जो गांवों की शोभा बढ़ाने वाली होती थीं। ऐसा शायद वे इसलिए करते थे कि इन चीजों को वे पिछड़ेपन की निशानी होने का प्रमाण दे सकें। समय तेजी से बदल रहा है और अब गांव की चीजें गांवों
से गायब हो रही हैं। कठपुतली, बाइस्कोप, डोली को अब शहर के लोगों ने अपना लिया है। लेकिन अब ये चीजें उनके लिए दिखावे और शोभा की वस्तु हो गई हैं। मसलन, गांवों में अब कठपुतली या इसका खेल नहीं
दिखता, लेकिन महानगरों में ‘दिल्ली हाट’ जैसी जगहों पर इसने अपनी जगह बना ली है। यहां के लोगों ने अंग्रेजी के शब्द ‘एथनिक’ या ‘क्लासिकल मॉडर्निटी’ से इसे एक नई पहचान दे दी है। हम ‘दिल्ली हाट’
में कठपुतली को जगह देकर यह तर्क देते हैं कि हमने कैसे पुरानी चीजों को संरक्षित किया है, लेकिन संरक्षित करने का मतलब उसके प्राकृत रूप में ही बचाए रखने से है, न कि कृत्रिम रूप में। यह अजीब बात
है या यों कहें कि यह एक द्वंद्व है कि कभी गांव के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ने वाले लोग जयपुर और हरियाणा में कृत्रिम रूप से बसाए गए गांव में जब आते हैं तो अन्य लोगों को यह बात केवल बताते ही नहीं
हैं, बल्कि फेसबुक जैसे सोशल माडिया के मंचों पर भी इसके बारे में लिखते हैं। इन जगहों पर ‘चोखी ढाणी’ नाम से एक पर्यटन स्थल विकसित किया गया है। कोलकता में कुछ कारोबारी परिवार अपने यहां
शादी-ब्याह में खूब खर्च करने के लिए जाने जाते हैं। वे अब शादी में डोली का उपयोग खुद को परंपराओं के रक्षक ‘आधुनिक’ दिखने का सबूत देने के लिए कर रहे हैं। अंतर सिर्फ इतना आया है कि पहले गांव
में डोली का उपयोग एक गांव से दूसरे गांव में लड़की को ले जाने के लिए होता था, लेकिन यहां दिखावे के रूप में लड़की को एक स्थान से फेरे वाले स्थान तक ले जाने के लिए होता है, जो महज कुछ मीटर की
दूरी होती है। आधुनिकता और परंपरा के द्वंद्व में फंसे हमारे समाज में एक और विचित्र स्थिति है। आदिवासियों के बारे में ज्यादातर लोग मीडिया में न कुछ देखना, न जानना पसंद करते हैं। लेकिन वही लोग
आदिवासियों को मूर्ति के रूप में अपने ड्राइंग रूम में सजाते हैं। यों मीडिया भी आदिवासियों के बारे में दिलचस्पी कम ही रखता है। सवाल है कि क्या आधुनिक होने का मतलब केवल भौतिक संस्कृति से है?
अगर ऐसा है तो आज हम सबसे ज्यादा ‘आधुनिक’ हैं, क्योंकि हम वर्तमान में काफी उन्नत तकनीक का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन यह सब जानते हैं कि इस तकनीक का ज्यादातर इस्तेमाल हम रूढ़िवादी सोच को फैलाने
के लिए करते हैं। आशय यह कि आधुनिक होने का मतलब अभौतिक संस्कृति, यानी वैचारिक संस्कृति से ज्यादा जुड़ा है। कठपुतली का करतब, बाइस्कोप और डोली जैसी चीजों को हम पिछड़ेपन की निशानी या आधुनिकता से
नहीं जोड़ सकते हैं, क्योंकि इस तरह की तमाम चीजें तात्कालिक व्यवस्था के अनुरूप होती हैं। दरअसल, कौन-सी वस्तु आधुनिक है और कौन-सी पिछड़ी, यह समाज का कुलीन वर्ग तय करता है। आधुनिकता की परिभाषा भी
वही अपनी सुविधा के अनुसार तय करता है।