दुनिया मेरे आगे: सुख में दुख

दुनिया मेरे आगे: सुख में दुख


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सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी लोग जितना अपने दुख से दुखी होते हैं, उससे ज्यादा वे आमतौर पर दूसरों के सुख से दुखी रहते हैं। मसलन, अगर किसी के पास अधिक पैसा, संपत्ति और वैभव है और हमारे पास नहीं है तो


हमें उसका सुख बर्दाश्त नहीं होता। जो हमारे पास है, उससे संतुष्ट रहने और खुश रहने के बजाय हम जो उसके बारे में सोच कर दुखी होते हैं, हमारे पास नहीं है। क्या यह नकारात्मक सोच नहीं है? यह सोचने


की जरूरत है कि अगर हमारे सभी अंग चुस्त-दुरुस्त हैं और हम पूरी तरह स्वस्थ हैं और कोई दवाई भी नहीं लेते, बढ़ी उम्र में भी अपने सारे शारीरिक और मानसिक कार्य कर लेते हैं तो हम भाग्यवान और सुखी


हैं कि नहीं? अक्सर हम देखते हैं कि हमसे आधी उम्र के लोगों को रक्तचाप और मधुमेह है या फिर कोई असाध्य बीमारी है और उन्हें लगातार डॉक्टर और अस्पताल में चक्कर काटने पड़ते हैं। लेकिन हमारा ध्यान


उन पर जाने के बजाय वैसे लोगों पर जाता है, जिनके पास वह सब है जो हमारे पास नहीं है। यानी लोग अगर हमसे अधिक सुखी हैं तो कुछ लोग अधिक दुखी भी तो हैं। लेकिन हम सुखी लोगों की ओर ही देखते हैं,


दुखी की ओर नहीं। यह असंतुलित दृष्टिकोण है और इसे सुधारे जाने की जरूरत है। वरना हमारा व्यक्तित्व ही बिगड़ जाएगा। दूसरे की कमीज हमारी कमीज से अधिक सफेद हो तो हम परेशान होते हैं और यह हमें


बर्दाश्त नहीं होता। हम अपनी कमीज को भी उतनी ही सफेद करने की कोशिश क्यों नहीं करते? जो मुमकिन है और हो सकता है वह हम जरूर करें। हम वजन तो कम कर सकते हैं, पर कद और लंबाई मनमाने तरीके से नहीं


बढ़ा सकते। यह मूल फर्क हमें समझना चाहिए। किसी से कुढ़ कर तो हम अपना अहित करते हैं। इससे हमारी कार्यक्षमता भी प्रभावित होती है। साहस और मनोबल क्या चीज है इसका जीता जागता प्रमाण मुझे एक दिन


देखने का अवसर मिला। मेरे घर के सामने मालिश केंद्र है, जहां हाथ-पैर की मोच और चोट के लिए लोग आते है। एक दिन एक ऐसा व्यक्ति रिक्शे में आया, जिसका बायां पैर घुटने के नीचे से पूरा कटा हुआ था,


जिसमें उसे मालिश करवा कर लेप लगवाना था। वह वॉकर के सहारे नीचे उतरा और अपने साथी के साथ मालिश के लिए गया। फिर उसी तरह वापस आया और जाने लगा। मैंने उससे पूछा कि उसके साथ क्या दुर्घटना हुई,


जिसके कारण उसे पैर कटवाना पड़ा। उसने कहा कि करीब पंद्रह साल पहले एक रेल दुर्घटना में उसका आधा पैर कट गया था, तब से बिना शिकवे के वह इसी तरह अपना जीवन बिता रहा है। जब लोग इस जीवट और स्वाभिमान


के साथ जीते हैं तो फिर तंदुरुस्त और सक्षम व्यक्ति क्यों दूसरों को देख कर कोफ्त में अपना ही जीवन कष्टप्रद बनाते हैं? इसी तरह एक महिला बचपन से दृष्टिबाधित हैं और पिछले बीस वर्षों से अपने सारे


काम खुद कर रही है। फिजियोथेरेपी भी करती हैं और कम्प्यूटर भी बखूबी चलाती हैं। जब लोग कष्ट में रहते हुए और दुखी होकर भी खुश रहते हैं तो हम सक्षम होकर भी क्यों दुखी होते हैं? एक व्यक्ति के


दोनों पैर नहीं है। वह भी हम्मालों के बीच ट्रकों पर रस्सी फेंकने का काम करके अपनी आजीविका चलाता है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो टूटे नहीं और हिम्मत से जीते रहे। जरूरी यह है कि हम अपनी क्षमता का


आकलन करें और उसका पूरा दोहन करें। लक्ष्य निर्धारित करें और उसे प्राप्त करने के लिए सौ फीसदी योगदान दें। खुद की खूबी को पहचाने और उसका पूरा इस्तेमाल करें। जो कर सकते हैं उसे पूरी शिद्दत से


करें। शंकाओं को दिमाग से निकाल दें। आखिर ऐसा क्यों है कि हमें लोगों को दुखी देखने में कोई हर्ज नहीं लगता है और जब किसी को सुखी देखते हैं तो अपने दुखी होने के बारे में सोचने लगते हैं! हम औरों


को तो देखते हैं, पर खुद को नहीं देखते। सबसे मेल मुलाकात भी करते हैं, पर हमारी कभी खुद से मुलाकात ही नहीं होती। अकेले में कभी खुद से भी अगर मुलाकात करें और गौर करें कि हमने क्या किया और क्या


नहीं किया, क्या खोया और क्या पाया। यह तभी संभव है जब हम पूरी एकाग्रता से आत्मनिरीक्षण और आत्मविश्लेषण करें। साहस के साथ अपने भीतर की ताकत और हौसले की पहचान भर करने की जरूरत है। काम मुश्किल


जरूर है, पर नामुमकिन नहीं। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि जिंदगी में सबको सभी कुछ नहीं मिलता। किसी शायर की ये पंक्तियां याद आती है- कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, कहीं जमीन तो कहीं आसमां


नहीं मिलता’! जो हमारे पास है और हमें मिला है, उसी का पूरा आनंद लेना चाहिए। इधर-उधर देख कर दुखी क्यों हों!