दुनिया मेरे आगे: विस्तार की सिकुड़ती गलियां

दुनिया मेरे आगे: विस्तार की सिकुड़ती गलियां


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करीब तीन दशक पहले पैदा हुई पीढ़ी को पुरातन की गांठ और नूतन के खुलते सिरे को एक साथ देखने का अनुभव प्राप्त है। तब आज की तरह परिवार पूरी तरह विभक्त नहीं हो पाया था। एकल परिवार का चलन भारत में आ


तो गया था, लेकिन उस पर अमल आसान नहीं था। माता-पिता इसके सख्त खिलाफ होते थे।


अभी तक घर के बच्चे दादा-दादी के गोद में सोते और नाना-नानी से परियों की कहानी सुनते। परंपरावाद और रूढ़िवाद अपनी जगह पर कायम थे। गुरुजनों का आशीष महत्त्वपूर्ण था। परिवार में आमतौर पर एक ही कमाऊ


व्यक्ति होता था। घर के मुखिया बूढ़े पिता ही होते थे।


तब बचपन स्वच्छंद हुआ करता था। वे विद्या को सर्वश्रेष्ठ मानते थे। उनकी खेल की दुनिया भी एकदम जुदा थी। कबड्डी, खो-खो, छुपम-छुपाई जैसे खुले आकाश के नीचे खेलने वाले खेल उनकी तंदुरुस्ती को बढ़ाता


था। वह बचपन बुआ के प्यार और मौसी के आंचल तले बढ़ता था, इसलिए इनकी संगत में तरह-तरह के कौशल आ जाते थे।


हालांकि जल्द से जल्द लड़की की शादी परिवार का ध्येय होता था। अमूमन समाज के सभी वर्गों में शादी के बाद लड़की की पढ़ाई लगभग बंद हो जाती थी। फिर वे सांसारिक होकर नई पीढ़ी को संवारने के काम में लग


जाती थीं।


एक समय आया जब विज्ञान के सहारे कंप्यूटर और तमाम तकनीकों से भारत लैस होने लगा। लोग इस बदलते भारत को विस्मय से निहार रहे थे। मानव चालित यंत्रों की जगह स्वचलित मशीनों ने ले ली। लोगों के आय के


साधन कम हो गए, लेकिन देश के विकास के आगे लोगों ने उसे भी सह लिया। ‘वैश्वीकरण’ और ‘विश्व बाजार’ जैसे शब्द लोग सुन तो रहे थे, लेकिन इनको अपनाना जरूरी नहीं समझ रहे थे।


उन्हें ‘विश्व मंच’ पर नाम कमाने से ज्यादा सुकून अपने गांव के आंगन में बैठ कर मिलता था। वे उन पलों में अपने आत्मीय के पास बैठ कर दो मीठे बोल बोलते या टोला-मोहल्ले में हो रही गतिविधियों पर


सलाह-मशविरा कर आते। आस-पड़ोस के दुख-सुख बांट आते। खुल कर हंसते, खुल कर रोते।


जीवन को एक उत्सव की तरह जीते। दुनिया चाहे चांद पर जाए, उन्हें अपने लोगों की परवाह रहती। उनके पास कोई ‘रॉकेट विज्ञान’ नहीं था। उनके हृदय में परोपकार और आंखों में पानी था, जिसके बल पर वे


दुनिया जीतते और नए-पुराने को जोड़ते जाते थे।


वह एक ऐसा युग था जहां नौजवान बदलाव को आत्मसात कर रहे थे, वही बड़े-बुजुर्ग मशीनीकरण को मानव जाति के लिए घातक बता रहे थे। नए-पुराने के पाटों में समाज भी चक्कर खा रहा था। विकास की राह में


घर-परिवार, स्त्री-पुरुष सभी में एक मौन वाद-विवाद चल रहा था।


स्त्रियां घर की दहलीज से बाहर निकलना चाह रही थीं, वही पुरुष यह देख कर घबरा रहा था। दशक के अंत तक परंपरा और रूढ़िवाद पर प्रहार होने शुरू हो गए थे। अब तक चले आ रही रीतियों और प्रथाओं को जरूरत


के तराजू पर तौला जा रहा था। अब जीवन केंद्रित और जीविका मुख्य होती जा रही थी, बाकी चीजें गौण।


आज हम इक्कीसवीं सदी में खड़े हैं। दो दशक आगे। अब वे सब बातें लागू हो गई हैं, जिनके विरोध में तब के बुजुर्ग खड़े रहते थे। मसलन एकल परिवार, पारिवारिक प्यार का बंटवारा, सामाजिक नैतिकता का ह्रास,


परंपरावाद का खंडन, मशीनी चीजों की बहुलता आदि।


सोचती हूं कि कभी उस दौर के लोगों से पूछ सकूं कि क्या आज का तकनीकी विकास उन पलों से ज्यादा सुकून दे पाते हैं, जिन्हें आपने जिया है? क्या आपके बच्चे कभी समझ पाएंगे कि जीवन में पारिवारिक प्रेम


और सामाजिक सहयोग के मूल्य कितना महत्त्व होता है? शायद ही ऐसा हो।


मशीनीकरण ने इंसान के अंदर के मानव को खा लिया है। माया, ममता, प्यार, अपनापन, परोपकार जैसे शब्द केवल भाववाचक संज्ञा बन कर रह गए हैं। बच्चे इनका उपयोग नहीं जानते। शायद इसीलिए दुनिया में


हिंसात्मक चीजों का प्रभाव बढ़ रहा है।


यह सच है कि विकास जरूरी है, लेकिन क्या जीवन के मूल्यों पर? आज का समाज अस्वस्थ हो गया है। कोई किसी का सुख-दुख नहीं बांटता। लोग स्वार्थी हो रहे हैं और बीमारियों से घिर रहे हैं। हमारा शरीर एक


ऐसा यंत्र है, जिसे बिना चलाए अगर हम भोजन ग्रहण करेंगे तो वह जहर होता जाएगा। लेकिन आज हाल ये है कि लोग आराम की रोटी खाने की फिराक में रहते हैं और तमाम बीमारियों के शिकार होते हैं।


वहीं मानसिक स्वास्थ्य विचारों के आदान-प्रदान से बढ़ता है। जब इंसान खुद को एक कमरे में बंद कर लेगा, तो उसका मानस क्षतिग्रस्त होगा। खुद विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक अवसादग्रस्त रोग में भारत


का विश्व में छठा स्थान है।


यहां प्रत्येक सात व्यक्ति पर एक व्यक्ति अवसाद का शिकार है। इसमें से सत्तर फीसद केवल खुले वातावरण और सामाजिक मेलभाव की कमी से हुआ है। इसी तरह बच्चों में तरह-तरह की बीमारियां बढ़ रही हैं, जो


पहले नहीं होती थीं। मेरा साफ मानना है कि विकास वह नहीं, जो हमारी आत्मा को खोखला कर दे। बल्कि विकास वह है जो हमारी चेतना को विस्तार दे। आगे बढ़ना जरूरी है, मगर दूसरों को गिरा कर जीत मिले तो वह


जीत नहीं कहलाती।


2022 में महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना में फूट पड़ी, जब एकनाथ शिंदे ने बगावत कर भाजपा के साथ सरकार बनाई। संजय राउत ने दावा किया कि शिंदे डर के कारण गए और उन्हें जेल जाने का डर था। राउत


ने शिंदे को बाला साहेब ठाकरे के साथ गद्दारी करने का आरोप लगाया। शिंदे ने पलटवार करते हुए राउत पर सत्ता के लिए बाला साहेब के सिद्धांतों से समझौता करने का आरोप लगाया।